Tuesday 12 March 2019

एक करोड़ का जूता- सुरेन्द्र मोहन पाठक

नॉवेल-एक करोड़ का जूता- लेखक-सुरेन्द्र मोहन पाठक

      "बेटा, ये हीरे मेरे बुरे वक़्त का सहारा है। जब भी मैं अपने आप को खतरे में पाता हूं, मैं यह एक करोड़ का जूता पहन लेता हूं। मोती, भविष्य में तू कभी मुझे ये सफेद जूता पहने देख ले तो समझ लेना तेरे बाप के सिर पर कोई जान या माल का खतरा मंडरा रहा है।"

रास्ते में बुंदेला ने कार में अपनी बगल में बैठे मोती से पूछा -"बड़े होकर तुम क्या बनना चाहते हो?"
"धनवान"- मोती ने निसंकोच उत्तर दिया।
         बुंदेला हड़बड़ाकर उसे देखने लगा। प्रत्यक्षतः उसे मोती से ऐसे उत्तर की आशा नहीं थी। वह तो सोच रहा था कि मोती कहेगा कि वह डॉक्टर या इंजिनियर या वकील या कलाकार वगैरह कुछ बनना चाहता था।

     "धनवान बनना कोई मुश्किल काम नहीं। आपको सिर्फ दूसरों को रास्ता दिखाना होता है कि पैसा कैसे हासिल किया जाता है, फिर आपको पैसा अपने आप हासिल हो जाता है।"

       प्रस्तुत उपन्यास पाठक साहब की थ्रिलर/विविध शृंखला का 19 वा नॉवेल है जो कि सन् 1985 जून में अशोक पॉकेट बुक्स से प्रकाशित हुआ और मार्केट में आते ही सेल के नए कीर्तिमान स्थापित करता हुआ इतनी तेज़ी से पहला एडिशन बिका और यूं मार्केट से लुप्त/अनुपलब्ध हुआ मानो नॉवेल कभी मार्केट में आया ही न था और इतनी धुंआधार बिक्री के बावजूद सेकंड एडिशन/ रीप्रिंट की चौतरफा डिमांड होने लगी जिसके मद्देनजर सिर्फ तीन महीनों में, गौर कीजिएगा की, जून में प्रकाशित नॉवेल का रीप्रिंट/ सेकंड एडिशन अक्टूबर 1985 में दोबारा अशोक पॉकेट बुक्स से रीप्रिंट होकर मार्केट में आ भी चुका।
      कथानक वस्तुत: एक तेज़ रफ्तार मर्डर मिस्ट्री है,17 साल पहले दीवाली की रात मोती अवतरमानी का पिता गोपाल आवतरमानी एक करोड़ के सफेद जूते और नोटों से भरे हुए एक ब्रीफकेस के साथ अपने इकलौते बिन मां के बेटे को छोड़कर हवेली  से बाहर कदम रखता है और फिर कभी वापिस न लौट पाता है।
  
        इस तेज़ रफ्तार कथानक में आगे कई ट्वीट्स और टर्नस है, 27 साल की उम्र में मोती अपने पिता और उसके साथ गायब हुए एक करोड़ के जूते, जिसमें की हीरों की सूरत में मौजूद संपत्ति की कीमत आज दस करोड़ के करीब थी को ढूंढने निकल पड़ता है, फिर आगे क्या होता है-
क्या वो अपने पिता के गायब होने का रहस्य सुलझा पाता है?
क्या वो उन हीरों को हासिल कर पाता है?
किस तरह वो सालों पहले घटित अनसुलझी गुथियों को सुलझाता है जिसके इन्वेस्टिगेशन के किसी नतीजे कि उम्मीद से क्या पुलिस क्या  डिटेक्टिव एजेंसियां तक अपने हाथ खड़े कर चुकी थी।
           कहानी काफी बड़े कैनवास पर लिखी गई है, संवाद काफी रोचक और नवीनता लिए हुए कहानी को कल्ट क्लासिक का दर्जा दिया जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी, गौरतलब है कि, आज से तकरीबन 34 साल पहले लिखी कहानी वही ताज़गी वही रोचकता बनाए हुए है मानो कोई हालिया प्रकाशित रचना हो, इसमें कोई दो राय नहीं की ऐसा कमाल करना  सिर्फ पाठक साहब जैसे कुशल और सिद्धहस्त लेखक के लिए ही मुमकिन है। पात्रों का चरित्र चित्रण सटीक, कथानक इतने बड़े कैनवास पर फैला होने के बावजूद काफी कसा हुआ है और साथ ही अंत तक रहस्य रोमांच बनाए रखता है। मेरे लिए हमेशा ये महत्वपूर्ण रहा है कि एक मिस्ट्री नॉवेल में रहस्य अंत तक बना रहे और साथ ही अंत चौंका देने वाला हो तो "सोने पे सुहागा" और यह नॉवेल इसका सटीक उदाहरण है। तो जो पाठक/रीडर्स सशक्त कथानक, उम्दा प्लॉट, रोचक किरदार और डिटेक्टिव मिस्ट्री फिक्शन का मजा एक ही नॉवेल में लेना चाहते है वो जरूर इसे पढ़िए।

  मेरी रेटिंग इस उम्दा मिस्ट्री के लिए 5/5 स्टार्स।
समीक्षक-....


Monday 4 March 2019

हिरोइन की हत्या- आनंद कुमार सिंह

हीरोइन की हत्या-लेखक-आनंद कुमार सिंह*
           मुख्य पात्र
यश खांडेकर - प्राइवेट इन्वेस्टिगेटर
बलदेव नारंग - पुलिस इंस्पेक्टर
जागृति - खांडेकर की सहायक
निवेदिता - मकतूल की सिस्टर
जोया - नर्स
  कहानी की शुरुआत होती है हॉस्पिटल से जहां प्राइवेट
इन्वेस्टिगेटर यश खांडेकर एडमिट तथा गिरफ्तार भी है और साथ ही बेहोश भी, होश आने पर खांडेकर को अहसास होता वह सिर पर अाई गहरी चोट के चलते अपनी याददाश्त खो चुका है और साथ ही वो किसी अभिनेत्री के मर्डर के जुर्म में गिरफ्तार है, पहले से दर्द से फटे जा रहे सिर पर ज़ोर डालने पर भी वो अपना नाम तक याद नहीं कर पाता तो मर्डर किसका हुआ किन परिस्थितियों में हुआ तथा वो क्यों इन्वॉल्व था इस मर्डर में ये बातें तो क्या याद आनी थी। आगे उसका ब्यान लेने आ पहुंचा कड़क काबिल ईमानदार इंस्पेक्टर बलदेव नारंग को इस बात पर रत्ती भर विश्वास नहीं होता है कि खांडेकर अपनी याददाश्त खो चुका है। अजीब कशमश में फंसे खांडेकर को थोड़ी राहत और अपनी पहचान तथा परिस्थितियों की जानकारी जोया से हासिल होती है जो कि अपने आप को उसकी सहायक बताती है तथा काफी मुश्किलात से खांडेकर से मिलने का जुगाड कर उससे मिलने पहुंचती है। आगे उसे जोया से पता चलता है कि वो यानी खांडेकर एक टॉप मोस्ट प्राइवेट इन्वेस्टिगेटर था तथा कई हाई प्रोफ़ाइल केसेस बड़ी कामयाबी से सुलझा चुका था। फिर आगे क्या हुआ, किस तरह एक काबिल प्राइवेट* इन्वेस्टिगेटर खांडेकर खुद को इन परिथितियों से उभार पाया और इस तरह से शुरू हुई एक तेज़ रफ्तार डिटेक्टिव इन्वेस्टिगेशन जो कि कई रोचक प्रसंगों से गुजरते हुए असली कातिल को बेनकाब होने पर खत्म होती है।

       पिछले दिनों बहुत थोड़े ही वकफे में कई नए लेखकों द्वारा लिखे इस जेनर के कई नॉवेल पढ़े पर एक आध को छोड़कर सभी से निराश ही हुआ, कहीं अनगढ़ लेखन तो कहीं रिपीटेटिव डायलॉग्स किसी में कथानक से जबरदस्ती खींच- तान तो कहीं कथानक के सभी सूत्र बिखरे हुए और कहानी पर कोई पकड़ नहीं।
         इसलिए इस कथानक को भी मैंने कोई खास उम्मीद लगाकर न शुरू किया पर यकीन जानिए चंद पन्ने ही पल्टे अपने किंडल पर और कहानी ने बेतहाशा रफ्तार  पकड़ ली और आखिर पूरा नॉवेल वन गो में ही खत्म किया।*
कहानी का एक नहीं की  "यू. एस. पी." है
1)सबसे पहले कहानी की सुंदर और सशक्त रचना प्रस्तुति।
2)पात्रों का सटीक चरित्र चित्रण। (सिर्फ एक पात्र को छोड़कर जिसका कि मैं आगे जिक्र करूंगा।)
3)कहानी का सिर घुमा देने वाला धांसू प्लॉट जिसे पढ़कर इस बात पर यकीन करना खासा मुश्किल हो रहा की ये किसी नए लेखक की पहली ही रचना है।
4)लेखन शैली लाजवाब और कमाल है फकत कुछ एक लेखकों को ही ये इल्म हासिल होता है कि वो पूरी कहानी एक ही लय में बिना कहानी को खींच तान के रोचकता से शुरू और खत्म कर सके और ये कमाल इस कहानी को पढ़कर आप खुद महसूस करेंगे।
5) एक मर्डर मिस्ट्री का सबसे जरूरी इंग्रीडिएंट होता है सशक्त मिस्ट्री/रहस्य, जो अंत तक बना ही न रहे बल्कि, अंत में पाठक को चौंका देने में भी सक्षम हो, तो इस मैदान में भी लेखक महोदय सफल हुए हैं।
मेरी परख से इस आला दर्जे की बेहतरीन थ्रिलर मिस्ट्री को।
4 स्टार्स आधा स्टार नॉवेल के टाइटल के लिए कट करता हूं जो कि 80 और 90 के दशक का लगता है जो की इतनी बढ़िया मिस्ट्री के स्तर से बिल्कुल मेल नहीं खाता और आधा स्टार में एक पात्र के चरित्र चित्रण के लिए कट करता हूं, कथानक में एक किरदार है मिकी जिसे की एक एक्सक्लूसिव कॉन्ट्रैक्ट किलर बताया गया है जो की एक   सिक्योर चैनल के जरिए ही कोई कॉन्ट्रैक्ट हासिल करता है तथा विदेशों में तक ख्याति प्राप्त है फिर अचानक से उसे किसी लोकल क्रिमिनल के पिट्ठू सा चित्रित कर दिया है जो कि मेरे हिसाब से सही नहीं, इसलिए इस नॉवेल के लिए मेरी रेटिंग-  4/5 
           मैं इस नॉवेल को इस विधा में एक काबिल लेखक का लोकार्पण मानते हुए उनका स्वागत करता हूं और उम्मीद है जल्द ही वो ऐसे और रहस्य रोमांच कथानक परोसेंगे और साथ ही मैं उनको प्राइवेट इन्वेस्टिगेटर यश खांडेकर और इंस्पेक्टर बलदेव नारंग को रिपीट करने की इल्तिज़ा भी करता हूं।
समीक्षक-  ....

सम प्रीत- एम. इकराम फरीदी

 एक समलैंगिक व्यक्ति की थ्रिलर गाथा   
         
          जनाब एम इकराम फ़रीदी साहब द्वारा लिखित “सम-प्रीत” रवि पॉकेट बुक्स, मेरठ (उत्तर प्रदेश) द्वारा प्रकाशित है। उपन्यास का मूल्य ₹१००/- (एक सौ रुपये मात्र) है, कुल पृष्ठ २५६ हैं जिनमें से कथा भाग २४५ पृष्ठों का है। कालानुक्रमिक अभिलेख के लिए उद्धृत है कि जनाब एम. इकराम फरीदी साहब के अब तक प्रकाशित उपन्यासों में यह छठा है।

           फरीदी साहब पाठकों के दिल में अब वो स्थान बना चुके हैं कि इनके आगामी उपन्यासों का पाठकों को बेसब्री से इंतजार रहता है। इनकी विशेषता यह है कि इनके उपन्यास किसी न किसी गंभीर सामाजिक समस्या पर कोई काबिले गौर संदेश जरूर देते हैं। इनकी यही विशेषता इन्हें अन्य जासूसी व अपराध कथा लेखकों से अलग खड़ा करती है। मैंने इनके सभी उपन्यास पढ़े हैं और उन पर अपने विचार भी प्रकट किये हैं।

         प्रस्तुत उपन्यास “सम-प्रीत” ऐसे विषय पर आधारित है जिस पर अधिकतर लोग बात करने से कतराते हैं, जिस पर लिखा भी बहुत कम जाता है और ज्यादातर लोगों को इस विषय पर सही जानकारी भी नहीं होती। “सम-प्रीत” समलैंगिक प्रेम पर आधारित अपराध कथा है, परन्तु फरीदी साहब ने समलैंगिकता पर अपनी कोई राय प्रकट नहीं की है। यह एक ऐसी अपराध कथा है जिसका केन्द्र समलैंगिक हैं। यह फरीदी साहब का एक साहसिक प्रयत्न कहा जा सकता है।

उपन्यास का कव्हर देखा जाए तो, कव्हर एक फैन द्वारा डिज़ाइन किया गया है जिसका चुनाव एक प्रतियोगिता के माध्यम से किया गया है। रंगसज्जा ठीक है एवं चित्र कथा एवं शीर्षक के अनुरूप है। परन्तु मेरे मतानुसार, कव्हर डिज़ाइनिंग को किसी प्रतियोगिता का विषय न बना कर प्रोफेशनल आर्टिस्ट्स से ही कव्हर डिज़ाइन करवाए जाने चाहिए।

शीर्षक की बात करें तो, “गुलाबी अपराध” के बाद फरीदी साहब का यह दूसरा उपन्यास है जिसका शीर्षक हिन्दी में है। मेरे विचार में, हिन्दी उपन्यास का शीर्षक भी हिन्दी में ही होना चाहिए। शीर्षक “सम-प्रीत” से कथावस्तु का अंदाज आना कठिन है, कहने का तात्पर्य यह कि “सम-प्रीत” शब्द से हर कोई यह अंदाजा नहीं लगा सकता कि कहानी समलैंगिकों पर आधारित है। कव्हर पर लिखी पंक्ति, “नवदंपति के पुरूष सदस्य को भी जब एक पति की जरूरत शिद्दत से आन पड़ी”, कव्हर चित्र और शीर्षक “सम-प्रीत” मिल कर यह अवश्य स्पष्ट कर देते हैं कि कहानी समलैंगिकता/समलैंगिकों के ईर्दगिर्द बुनी गई है।

           उपन्यास को खोला जाए तो, पेपर क्वालिटी, छपाई और अक्षर विन्यास हमेशा की तरह ही हैं, परन्तु इस बार अंत तक टंकण त्रुटियां (typing mistakes) बहुत हैं। लगता है प्रूफ रीडिंग में यथोचित सावधानी नहीं बरती गई। प्रकाशन में इतनी देरी के बाद भी टंकण त्रुटियां होना आश्चर्यजनक है।

         अब बात करते हैं कहानी के बारे में, कहानी एक “मर्डर मिस्ट्री” है और एक विवाहिता अंकिता के बारे में है जिसे पता चलता है कि, उसका पति मनोज “गे” है और उसके पति का एक बॉयफ्रेंड/पति सन्नी है जिसे वह अपने घर में साथ ही रहने बुला लेता है और उसके लिए एक लड़की की तरह सजने संवरने लगता है। दुनिया की कोई भी विवाहिता, जब तक खुद “लेस्बियन” न हो, अपने पति का “गे” होना सहन नहीं कर सकती, तो अंकिता कैसे कर सकती थी? अंकिता को यह भी पता चलता है कि उसके पति का पति सन्नी “बाइसेक्सुअल” है। कहानी में अंकिता और मनोज की बीती ज़िंदगी में से किरदारों की वापसी होती है, अंकिता, मनोज और सभी किरदार अपनी चालें चलते हैं, और रहस्य गहराता जाता है.. कहानी के बारे में इससे ज्यादा बताना उचित नहीं होगा!

          फरीदी साहब ने समलैंगिक मानसिकता, समलैंगिकों की मनोदशा और उनके हाव-भाव तथा रूचियों का अच्छा चित्रण किया है। कहानी २४५ पृष्ठों की है, आधे से ज्यादा पृष्ठ समाप्त होने के बाद भी यही पता नहीं चलता की खून किसका होने वाला है। अपनी रहस्य-रचना की कला का सार्थक उपयोग फरीदी साहब ने किया है, अंत तक वे पाठकों को बांधे रखने में सफल हुए हैं। पठनीयता की दृष्टि से देखा जाए तो उपन्यास एक ही बैठक में पठनीय है। मैंने इसे एक ही बैठक में न सही, जिस दिन मिला उसी दिन में पढ़ लिया था।

           संवादों की बात की जाए तो संवाद “रिवेंज” की तुलना में कलात्मक तो नहीं हैं, पर कहानी के अनुरूप ही हैं और अनावश्यक रूप से लंबे न होने के कारण कहानी की गति को धीमा नहीं करते।

      भाषा व कथाकथन शैली सरल है, अनावश्यक कलात्मकता नहीं है, जिससे कहानी के फ्लो में बाधा उत्पन्न नहीं होती। एक ही बैठक में पठनीय उपन्यासों की यह भी एक विशेषता होती है।

       कहानी की गति मध्यम है। अपराध कथाओं में जहाँ अपराध घटित होने के बारे में पता चलता है वहीं से कहानी में दिलचस्पी बढ़ती जाती है, अब ये लेखक की प्रतिभा पर निर्भर करता है कि तब तक वह पाठकों को बांधे रख पाए और बोर न होने दे। फरीदी साहब पाठकों को बांधे रखने में तो सफल हुए हैं।

         फरीदी साहब कानून के विषय में थोड़ा चूक गए हैं। पुलिस के अबोधपने से चार्जशीट बनाने, मस्तिष्क का बिल्कुल उपयोग न करने और अदालत का कीमती टाईम खराब करने के लिए जज को यह फैसला करने का हक नहीं कि केस का जांच अधिकारी अगले किसी केस में जांच अधिकारी होगा या नहीं। ऐसी सजा सिर्फ पुलिस के उच्चाधिकारी ही दे सकते हैं, पर पुलिस के उच्चाधिकारियों को भी ऐसा आदेश जज द्वारा नहीं दिया जा सकता।

    अंत में मैं यही कहना चाहूंगा कि उपन्यास एक ही बैठक में पठनीय है। मैं “सम-प्रीत” को ७/१० की रेटिंग देता हूँ।

समीक्षक -संदीप नाईक


Sunday 24 February 2019

आॅप्रेशन AAA- मोहन मौर्य

आॅप्रेशन- AAA- मोहन मौर्य
समीक्षक- संजीव शर्मा

साहब जी,
किताब पढ़ कर खत्म की
सॉरी लेकिन बिल्कुल पसंद नही आई
किताब का शीर्षक attractive है पर कहानी को सूट नही करता है
कहानी 1970 - 80 की फिल्मों की कहानी जैसी लगी
जो अच्छी तो है पर फ्री में पढ़ने को मिले तो ठीक पर 120 रुपये खर्च करने लायक नही
175 पेज की किताब ऊपर से पार्ट में मतलब एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा एक ही पार्ट 300 या 350 पेज का होता तो ठीक था
दूसरे पार्ट के लिए फिर 120 रुपये खर्च करने से पहले दस बार सोचना पड़ेगा
तीन छोटी छोटी कहानी को लिख कर नॉवेल लिखी
कहानी भी ऐसी जिनमे कुछ खास दम नही थ्रिल नही ट्विस्ट नही
कहानी में आगे क्या होगा वो पहले से पता चल जाये खास कर उन पाठकों को जो 20 से 30 बरस से अनिल मोहन वेद प्रकाश  शर्मा कंबोज जी , सुरेंद्र मोहन पाठक जी को पढ़ रहे हैं
मोहन जी
कहानी लिखने से पहले कहानी के करैक्टर को स्ट्रांग बनाये
जो किताब पढ़ने के बाद भी याद रहे जैसे सुनील, विमल विजय विकास, देवराज चौहान
आपकी कहानी भले ही अच्छी हो दमदार नही है
कहानी कहने का अंदाजे बयां बडा कमजोर है
सीधी साधी कहानी से नही नावेल नही बनती नॉवेलअपने ट्विस्ट थ्रिल सस्पेन्स से दमदार बनती है
पहले पेज से पाठक किताब से जुड़ जाना चाहिए उसके पात्रों से जुड़ना चाहिए
पर ऑप्प्रेशन a a a बड़ी कमजोर और पुराने जमाने की कहानी लगी
जिसके लिए 120 रुपये खर्चना महंगा काम है
5 में से सिर्फ 2 स्टार आपकी मेहनत लगन के लिए।



Thursday 7 February 2019

दांव खेल, पासे पलट गये- वेदप्रकाश कांबोज

दाव खेल, पासे पलट गये- वेदप्रकाश कांबोज
समीक्षा- शिखा अग्रवाल

          सबसे पहले बात लेखकीय की तो लेखकिय पहले प्रकाशित उपन्यास प्रेतों के निर्माता की तरह ही बेहतरीन है,उपन्यास के4 मुख्य पात्र है-विजय,फन्ने खा तातारी,कुंदन कबाड़ी और हुचांग,कहानी भारत और रूस के बीच होने वाले गुप्त समझौते से होती है जिसे रोकने और मालूम करने के लिए चीनी अपने जासूस हुचांग को मिशन पर भेजते है,भारत की तरफ से दस्तावेज लाने की जिम्मेदारी विजय को दी जाती है जो भारतीय सीक्रेट सर्विस का महत्वपूर्ण सदस्य है,इस मिशन में विजय का साथ कुंदन कबाड़ी और फन्ने खा तातारी देते है जो सी.आई.डी. में ट्रेनी है,विजय और हुचांग की एक मुलाकात पहले भी हुई होती है जिसमे हुचांग जुए में उसे चालाकी से हराता है,तब विजय उससे कहता है कि मेज के जुए में और जिंदगी के जुए में बहुत फर्क होता है!पूरे नोवल में शुरू से अंत तक दाव खेल चलते रहते है और अंत तो जबरदस्त है ही जब पासे पलटते है,तातारी और कबाड़ी की झकझकिया हँसा हँसा कर पागल कर देती है,कही ना कहीं इन दोनों का किरदार मुझे विजय पे भी भारी पड़ता हुआ लगा,अंत बहुत ही चौकाने वाला है,पूरा नॉवल एक ही बैठक में पठनीय है!पिछले नॉवेल में प्रूफ रीडिंग की जो गलतियां सामने आई थी वो इस नॉवेल में पूरी तरह दुरुस्त कर दी गयी है!आगे भी सर के ऐसे ही बेहतरीन नगीने हमे पड़ने को मिलते रहेंगे यही आशा है.
अंत तातारी की एक झकझकी से करना चाहूंगी-
           मेरी ऐसी हुई पिटाई
           आ गई याद मुझे मेरी ताई
           बिना उस्तरे करे हजामत
           कैसा है यह नाई
                           मेरी ऐसी हुई.....
            हड्डी सारी चटक रही है
           टीस रहा है गाल
           दर्द की लहरें वही से उठे
           जहा भी रख दु हाथ
           कोमल काया दनलपिलोसि
           धुन कर करी चटाई
                 कि मेरी ऐसी हुई पिटाई
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दांव खेल, पासे पलट गये- वेदप्रकाश कांबोज

दांव खेल, पासे पलट गये- वेदप्रकाश कांबोज
जासूसी उपन्यास,
समीक्षा- संदीप जुयाल, दिल्ली

           ‌‌सबसे पहले तो वेद प्रकाश कंबोज सर को मेरा प्रणाम🙏
मेरे द्वारा पढ़ा गया "दाँव खेल पासे पलट गए" सर का यह पहला उपन्यास है जिसे मै अभी तक दो बार पढ़ चुका हूं  और सच कहु तो इस उपन्यास को दुबारा पढ़ के पहली बार से भी ज्यादा मजा आया।
        ‌‌भारत द्वारा अंतरिक्ष मे छोड़ा गया सबसे पहला उपग्रह जिसका नाम था "आर्यभट" जिसे 19 अप्रैल 1975 को लांच किया गया और इस उपग्रह को लांच कर के भारत अंतरिक्ष युग मे दाखिल हुआ और  जिस तरीके से सर ने इस बारे मेे जानकारी दी वो काबिले तारीफ थी उस समय  जिसने भी यह  उपन्यास पढ़ा होगा और उसने किसी सरकारी परीक्षा मे यह प्रशन देखा होगा तो झट से इसका उत्तर दे दिया होगा इससे यह तो साबित हुआ कि इस उपन्यास को पढ़ कर पाठको का भरपूर मनोरंजन हुआ ही होगा उसके साथ उनका नॉलेज भी बढ़ा होगा और यह ही बात मुझे इस उपन्यास मे सबसे ज्यादा बढ़िया लगी की इस किताब को पढ़ के कुछ सीखने को ही मिला है।
            अब उपन्यास की कहानी कुछ इस प्रकार है कि चीनियो को भनक लगती है कि भारत और रूस गुप्त रूप से आपस मे मिलकर कुछ समझौता करने जा रहे है और शायद उनकी यह योजना भी आर्यभट उपग्रह जैसी ही कोई बहुत बड़ी योजना हो और इसी बात को मालूम करने के लिए चीन अपना सबसे जांबाज, खतरनाक जासूस हुचांग को मैदान मे उतारता है ताकि इस योजना से जुड़े हुए जो भी कागजात हो वह हुचांग अपनी बुद्धि के बल पर भारत के जाने माने जासूस विजय से वह जरूरी कागजात हासिल कर सके। हुचांग और विजय की मुलाकात पहले ही ईरान की राजधानी तेहरान मे एक अजीब ढंग से हो चुकी थी और हुचांग ने विजय को इस मुलाकात के बाद एकदम बच्चा और कच्चा खिलाड़ी समझ लिया था पर विजय एक अनोखे अंदाज मे हुचांग से बोला था बेटा अफीमची विजय ने भले ही मेज के जुवे मे दांव हारा हो पर जिंदगी के जुवे मे हमेशा विजय ही रहा है, तो क्या हुचांग विजय से कागजात लेने में सफल हुआ? या इस बार विजय सच मे जिंदगी का दाव हार गया? किसने किसके लिए जाल बिछाया कौन किस के जाल मे बुरी तरह फसा यह बात तो आप इस उपन्यास को पढ़कर ही जान सकेंगे, दोनों ही बहुत बड़े महारथी है, जिंदगी का यह दांव किसने जीता यह  जानने के लिए जरूर पढ़े दाव खेल पास पलट गए।
            ‌‌‌         उपन्यास के दो जोकर फन्ने खाँ तातारी और कुंदन कबाड़ी जब से इन दोनों को दिखाया गया तब से इन्होंने कहानी मे मजा सा बांध दिया था इनकी बातो ने, इनकी झकझंकियो ने तो सच मे दिल छू लिया था इस उपन्यास की असली जान यह दोनों ही है और इस उपन्यास के बाद तो मै विजय का कम इनका फैन ज्यादा हो गया हु। एक जगह तो सच मे मै बुरी तरह हस हस के पागल हो गया था जब विजय का सांकेतिक भाषा मे हुचांग के लिए छोड़ा गया एक छोटा सा वाक्य था- चॉ का ट् ठा हु पल्लू गऊ। इस वाक्य को मैंने भी तोड़ने की कुछ कोशिश की थी पर सफल नही हो पाया था पर जब इसका मतलब मालूम पड़ा तो हस हस के बुरे हाल हो गए थे पर पूरे उपन्यास की कहानी समझने मे दिमाग का पुरा दही हो गया था कि आखिर चल क्या रहा है सब घूमे ही जा रहे है साथ मे मेरा दिमाग भी घुमा रहे है कर कोई कुछ कर रहा नही है आखिर यह सब क्या हो रहा है पर जब कहानी अपने अंत तक पहुची तो दिमाग को  एक ऐसा झटका लगा कि 2 मिनट के लिए तो समझ ही नही सका कि क्या ऐसा भी कभी होता है और तब सिंघम फ़िल्म का एक डायलॉग याद आया यह तो चीटिंग है, मुझे हँसी भी आई पर कुछ भी कहो अंत बहुत ही शानदार था पूरा मजा आया  इस उपन्यास को पढ़ कर मेरे पूरे 140 रुपये वसूल हुए है।
                  पर उपन्यास के अंत मे एक छोटी सी कमी भी रही और वो कमी यह रही की मुझे सिर्फ एक बात नही समझ आई थी जो कि 211 पेज नम्बर पर है पर यह कोई ज्यादा बड़ी कमी नही थी पर मै थोड़ा अनोखा किस्म का इंसान  हु कही कुछ समझ नही आता तो पूछता जरूर हु और पूछने पर मेशु सर और राममेहर सर ने खुद फ़ोन कर मुझसे इस सिलसिले मे बात की थी और मुझे बताया गया कि इस बात का भी आगे से ध्यान रखा जाएगा कि आगे से किसी को कुछ पूछने की जरूरत महसूस नही होगी।
बस आखिर मे इतना ही कहना चाहूंगा कि  वेद प्रकाश कंबोज सर के उपन्यास जितना जल्दी हो सके 2,3 नोवेल्स की कहानियों को एक ही बाइंडिंग मे रीप्रिंट किया जाए अगर शुरू से शुरुआत हो जाए तो कहने ही क्या बस अब अगले उपन्यास का इंतज़ार है बाकी मिलते है अगले उपन्यास के बाद।
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उपन्यास- दांव खेल, पांसे पलट गये (द्वय उपन्यास)
लेखक-    वेदप्रकाश कांबोज
प्रकाशक- गुल्लीबाबा पब्लिकेशन
समीक्षा -   संदीप, दिल्ली

Monday 28 January 2019

एक हसीन कत्ल- मोहन मौर्य

एक हसीन क़त्ल-  मोहन मौर्य
समीक्षक- शोभित गुप्ता

कभी कभी आप जब कोई कहानी पढ़ रहे होते हैं तो आप यह सोचते हैं, काश यह एक कहानी ही होती पर अंदर ही अंदर आप सोच रहे होते हैं कि ऐसा क्यों बदल गया है समाज! किस दिशा में, और क्यों जा रहा है! क्या यह सब ठीक नहीं हो सकता?

कहने को तो यह नॉवल एक कहानी है पर जैसी घटनाएँ इसमें दिखायी गयी हैं वो हमारे समाज में हो रही हैं और न्यूज़ चैनल्ज़ पर दिखायी जा रही हैं. इस नॉवल ने सोचने पर मजबूर किया है.

नॉवल में कहानी है कुछ VVIPs के 16-18 वर्ष के बच्चों की, जो एक बहुत ही पॉश हाई फ़ाई स्कूल में एक साथ पढ़ते हैं. इनके बीच लव त्रिकोण है, स्पर्धा है जो कि अमूमन किशोर किशोरियों में आजकल आम बात है पर तभी एक क़त्ल हो जाता है जो कि हसीन ना होकर बहुत वीभत्स है झँझोरने वाला है. शक़ की सुई कई किरदारों पर घूमती है, क़त्ल की अलग अलग वजह, अलग अलग विवेचनाएँ हैं. पर असली क़ातिल पर ध्यान अंत में ही जाता है, कम से कम मैं तो क़ातिल का कोई हिंट पहले नहीं पकड़ पाया था.

कहानी दमदार है, थ्रिल सस्पेन्स से भरपूर है. निस्सन्देह लेखक एक उत्तम प्लॉट गड़ने में सक्षम हैं.

उपन्यास में मुझे यह बात बड़ी शिद्दत से खली कि कहानी को विस्तार नहीं दिया गया. पात्रों का चरित्र पूरी तरह उभरकर नहीं आ पाया. मुझे लगता है उपन्यास में कम से कम 50-70 पृष्ठ और जोड़े जा सकते थे, संभवतया, लेखक की सोच थी कि कहीं कहानी अनावश्यक रूप से लम्बी नीरस ना हो जाए और उसकी लय ना बिगड़ जाए. अगर ऐसा था, तो मुझे लेखक की इस सोच से पूरा इत्तफ़ाक़ है. पर अगले उपन्यास में उन्हें इस बात का ख़याल रखना चाहिए कि कहानी को पात्रों के ज़्यादा संवाद के ज़रिए आगे बड़ाया जाए, उनकी भावनाओं को बेहतर से वर्णित किया जाए.

लेखक का यह पहला ही उपन्यास है और उन्होंने यक़ीनन कहानी पर दमदार काम किया है और इस प्रकार के बोल्ड विषय को चुनकर एक अदम्य साहस दिखाया है, जिसके लिए वो बधाई के पात्र हैं. यक़ीनन एक अलग प्रकार का उपन्यास पढ़ने को मिला जो तेजरफ़्तार था, कसी हुई कहानी और बेहतर सस्पेन्स के साथ. यक़ीनन अगर वो इस तरह की नए कलेवर की कहानियाँ लाते रहेंगे तो अपना एक अलग मुक़ाम बनाएँगे।

उपन्यास- एक हसीन कत्ल
लेखक- मोहन मौर्य
प्रकाशक- सूरज पॉकेट बुक्स

समीक्षा- शोभित गुप्ता